कविता संग्रह >> करुणा और दर्द के धनी महाकवि अनीस करुणा और दर्द के धनी महाकवि अनीससालेहा आबिद हुसैन
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महाकवि अनीस की श्रेष्ठ रचनाएँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कर्बला की घटना इतिहास की ऐसी दुखद घटना है जिसकी याद लगभग साढ़े तेरह सौ
वर्षों से सारी दुनिया के मुसलमानों के दिलों में बसी है। भारत सहित
दुनिया-भर के मानवता के पुजारी हुसैन के बेजोड़ बलिदान को अपने-अपने ढंग से
मनाते हैं।
कर्बला की घटना महाकवि अनीस के काव्य की पृष्ठभूमि है। ऐतिहासिक घटनाओं को
महाकवि ने कल्पना के नेत्रों से देखकर मर्सियों में ऐसे जीते-जागते रंग
भरे हैं और उनको इस ढंग से पेश किया है कि हम भी अपने ख़यालों में मानों
वही घटनाएँ देखने लगते हैं और उनसे प्रभावित होते हैं।
इस पुस्तक में उर्दू के महान् कवि अनीस के श्रेष्ठ मर्सिये, सलाम और
रुबाइयाँ संग्रहीत हैं, हिंदी पाठकों के लिए पहली बार। ये मर्सिये स्वयं
अनीस के मुख से लाखों लोगों ने सुने थे और अब वर्षों से हज़ारों घरों में
हर साल मुहर्रम के महीने में पढ़े और सुने जाते हैं। प्रस्तुत है पाठकों के
लिए इस महत्त्वपूर्ण कृति का नया संस्करण।
मीर ‘अनीस’ के मर्सियों की पृष्ठभूमि
कर्बला की घटना
मीर अनीस के मर्सियों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि कर्बला की घटना के
विषय में भी पढ़ने वालों को थोड़ी-सी जानकारी हासिल हो जाये। हम कोशिश
करेंगे कि संक्षिप्त रूप में इतिहास की रोशनी में कर्बला की घटना का कुछ
ज़िक्र करें, कि क्यों इमाम हुसैन ने एक शक्तिशाली राज्य से टक्कर ली और
अपने बाल-बच्चों और दोस्तों सहित जान दे डाली।
हज़रत मुहम्मद, पैग़म्बर-इस्लाम ने जब अरब देश में हक़ (सत्य) की आवाज़ उठायी और ख़ुदा का पावन सन्देश लोगों को पहुँचाना शुरु किया तो प्रारम्भ में अरब-निवासियों ने उनका घोर विरोध किया और दुश्मनी पर कमर बाँध ली। उनको हर तरह से दुख दिये और कोशिश की कि इस्लाम को न फैलने दें। इस विरोध और दुश्मनी में अरब के एक प्रसिद्ध क़बीले के लोग ‘बनी उमय्या’ आगे-आगे थे। उनको ‘बनी हाशिम’ से (जिस क़बीले से हज़रत रसूल थे) दुश्मनी थी; इसलिए वो लोग सज्जनता, धर्म-कर्म और परोपकार के कारण प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते थे और काबे (ख़ुदा का घर) का संरक्षण का भार उन्ही को मिला हुआ था।
जब सारे अरब में इस्लाम फैल गया तो, ‘बनी उमय्या’ ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया। मगर इनमें से बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्होने मस्लहत देखकर नया धर्म अपना लिया था और चाहते थे कि अब इनके अन्दर रहकर इसकी जड़ें काटें।
हज़रत मुहम्मद के देहान्त के उपरान्त उनके जो पहले चार ख़लीफ़ा (अर्थात् उनके उत्तराधिकारी) हुए उन्होंने रसूल की शिक्षाओं का पालन किया और इस्लाम की सच्ची आत्मा और मूल उद्देश्य के सामने रखकर काम किया। ख़लीफ़ा लोगों का सेवक भी था और धर्मिक पेशवा भी। वह शासन की समस्याएँ जन साधारण की राय लेकर तय करता था। इस ख़िलाफ़त का बादशाही और सलतनत से दूर-दूर तक कोई वास्ता न था, लेकिन इसी समय में बनी उनय्या के कुछ लोगों ने अन्दर-अन्दर अपना असर जमाना शुरू कर दिया था। जब हज़रत अली ने (जो हज़रत इमाम हुसैन के पिता थे) ख़िलाफ़त सँभाली तो इस्लाम और हज़रत मुहम्मद की शिक्षाओं को फैलाने की ज़्यादा कोशिश की और इस्लाम की सही दिशा की रोशनी में ख़िलाफ़त का काम करना शुरू किया। मगर माबिया ने, जो बनी उमय्या का एक सरदार और प्रभावशाली व्यक्ति था, हज़रत अली को ख़लीफ़ा मानने से इन्कार कर दिया, और शाम में अपना राज्य स्थापित कर लिया।
उसका ठाट-बाट, अन्दाज़ सब शबाना थे। हज़रत अली से और उससे कई लड़ाइयाँ भी हुईं। मुसलमानों में ज़्यादा लोग हज़रत अली के साथ थे और उन्हीं को इस्लाम का सच्चा ख़लीफ़ा मानते थे। मगर धन और शक्ति के भूखे बहुत से लोग माबिया के साथ भी मिल गये थे। यहाँ तक की चालीस हिज़री में हज़रत अली को शहीद कर दिया गया। उनकी शहादत के बाद अरब और ईराक के लोगों ने उनके बड़े बेटे इमाम बसन को अपना ख़लीफ़ा बनाया। मगर इधर माबिया ने अपनी ख़िलाफ़त का एलान कर दिया और फिर लड़ाई छिड़ने का अन्देशा हुआ। इमाम हसन बड़े सुलहपसन्द इन्सान थे और शान्ती से जीवन व्यतीत करना चाहते थे। उन्होंने कौम को लड़ाई और खून-खराबे से बचाने के लिए माबिया से चन्द शर्तों पर सुलह कर ली। इनमें से एक यह थी कि माबिया अपनी ज़िन्दगी भर तक ख़लीफ़ा रहेंगे, मगर किसी को अपना उत्तराधिकारी न बनाएँगे और उनके बाद ख़िलाफ़त हज़रत हसन या इमाम हुसैन को मिलेगी। मावया ने कुछ वर्ष बाद इमाम हसन को भी चुपके से विष देकर मरवा डाला और सबसे बड़ी शर्त को तोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी ही में अपने बेटे यज़ीद के लिए लोगों से बैद्यत लेनी शुरू कर दी। और जब माविया का देहान्त हुआ तो यज़ीद ने रसूल का ख़लीफ़ा होने का दावा कर दिया।
यज़ीद और माबिया में एक बड़ा फ़र्क था। बहुत-सी कमज़ोरियों और त्रुटियों के बावजूद माविया और ज़ाहिर में इस्लाम के आदेशों का मानता था और कुछ न कुछ इस्लामी-शिक्षा को सामने रखता था। यज़ीद का चरित्र नितान्त दोष युक्त था। वह न इस्लाम के खुले हुक्मों की पाबन्दी करता था, न उसकी शिक्षा को मानता था और न इस्लाम से उसे ज़रा-सा भी कोई लगाव था। वह ज़ालिम भी था और पापी भी। हज़रत रसूल और उसके वंश का कट्टर दुश्मन था इसलिए कि अब भी अरब में लोग श्रद्धा और प्रतिष्ठा में सबसे ऊँचा स्थान उन्हीं का समझते थे और उनसे प्रेम करते थे।
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1.बैयत का अर्थ है कि किसी के हाथ में हाथ दे देना, उसे अपना धार्मिक गुरु या पेशवा मान लेना.
माविया के बाद यज़ीद ने रसूल का ख़लीफ़ा होने का ऐलान कर दिया। इससे अरब में, विषेशतः ईराक में, लोगो में परेशानी और भय फैल गया। यज़ीद ने बहुत लोगों को अत्याचार या शक्ति से या लालच देकर चुप कर दिया था। मगर कुछ ख़ुदा के बन्दे ऐसे भी थे जो इन बाँतो से डरने वाले न थे। इनमें हज़रत अली के बेटे और हज़रत मुहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन का नाम सबसे ज़्यादा मशहूर है।
यज़ीद के मित्रों ने उसे सलाह दी कि सबसे पहले वह इमाम हुसैन से निबटे और उनसे अपनी बैद्यत ले अर्थात वे उसे रसूल का जानशीन और इस्लाम का ख़लीफ़ा मान लें। उसने मदीने के हाकिम को हुक्म भेजा कि हुसैन से मेरी बैद्यत लो, अन्यथा उसको क़त्ल कर डालो। यह इस्लाम के विरुद्ध बहुत बड़ा षणयंत्र था। वे लोग समझते थे कि यदि रसूल के नवासे ने, जिसके घर से इस्लाम निकला है और जो इस्लाम की शिक्षा को सबसे बड़ा जानने वाला और इस पर अमल करने वाला है, यज़ीद को अपना ख़लीफ़ा मान लिया, तो उसका हर काम और हर ग़लत अनपयुक्त कर्म, इस्लाम की शिक्षा के अनुरूप समझा जायगा; क्योंकि जिसको रसूल का नवासा अपना ख़लीफ़ा और पथ प्रदर्शक मान लें तो फिर शेष क्या रह जाता है ? और इस तरह इस्लाम की मूल शिक्षा और उसकी सच्ची आत्मा ख़त्म हो जायगी।
इमाम हुसैन पहले ही से हालात का रुख देख और समझ रहे थे और अपना रास्ता चुन चुके थे। वह जानते थे कि इस वक्त उन्हें एक बड़ी कठिन परीक्षा का सामना करना है। जब मदीने के हाकिम ने बुलाकर उनसे कहा कि वह यज़ीद को ख़लीफ़ा मानकर अपनी बैद्यत कर ले, तो फ़ैसला करने में उन्हें क्षण भर भी न लगा और उन्होने निर्भय होकर ऐसे व्यक्ति को रसूल का ख़लीफ़ा मानने से इन्कार कर दिया और अपने घर चले गये; यह जानते हुए भी कि यज़ीद का अगला कदम उनके क़त्ल की तरफ़ ही उठेगा। मदीने के हाकिम के लिए ख़ास मदीने के अन्दर इमाम हुसैन को क़त्ल करना आसान न था। इधर इमाम हुसैन ने समझ लिया कि इस्लाम और सच्चाई को बचाने के लिए उन्हें जान तो देना है मगर इस तरह की दुनिया को स्पष्ट मालूम हो कि हुसैन ने क्यों जान दी ? और उनके दुश्मनों ने उन्हें क्यों मारा ? यानी सत्य और असत्य की जो लड़ाई संसार में सदैव से होती आयी है वह एक नये ढंग से लड़कर दिखाई जाय।
इमाम हुसैन ने परिस्थिति को देखकर और परखकर मदीना छोड़ने का निश्चय कर लिया। पहले उनका इरादा इसके लिए मक्के जाने का, और फिर ईराक की ओर रवाना होने का था, जहाँ के लोग उन्हें पत्र लिखकर बुला रहे थे कि आइये, हम यज़ीद को रसूल का ख़लीफ़ा नहीं मानते, आप आकर हमें यज़ीद के हाकिमों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाइये। जब इमाम हुसैन ने वंश के लोगों के सामने ये समस्या रखी तो सब लोगो ने एक आवाज़ में होकर कहा कि हक़ (सत्य) और बातिल (झूठ) की इस लड़ाई में हम आपका साथ देंगे। घराने की स्त्रियों, बहनों, बेटियों, भावजों और पत्नियों ने कहा कि ख़ुदा की राह में क़ुर्बानियाँ देना और हक़ (सच्चाई) का साथ देना हमारा कर्तव्य भी है, और विर्सा भी, हम अभी साथ रहेंगे। कुछ मित्रों और साथियों ने आग्रह किया कि हम आपके साथ जायेंगे। इमाम हुसैन ने प्रत्येक अवसर पर हर जगह बार-बार लोगों को बताया और समझाया कि बहुत बड़ी शक्ति से मुक़ाबला होगा; मैं ख़िलाफ़त प्राप्त करने नहीं, इस्लाम के लिए जान देने जा रहा हूँ। मगर उनके साथियों ने यही कहा कि हम आपके साथ जियेंगे और आपके साथ मरेंगे।
ग़रज़ हुसैन अपने घराने वालों के साथ मदीने से मक्का रवाना हुए। केवल एक बीमार बेटी और बूढ़ी नानी और सौतेली माँ मदीने में रह गयीं। पहले वह मक्के गये मगर वहाँ भी यज़ीद के लोग मौजूद थे जो चाहते थे कि हज के अवसर पर चुपके से इमाम हुसैन को मार डालें और अपराध किसी निर्दो, के सिर मढ़ दिया जाये। मगर हुसैन तो यह चाहते थे कि जान इस तरह दें कि दुनिया को अच्छी तरह मालूँम हो जाय कि हुसैन ने क्यों जान दी, और किसने उनको मारा ? इसलिए आप हज किये बिना ईराक की तरफ़ रवाना हो गये। ये छोटा सा क़ाफ़िला अरब की गर्मी की कठिन यात्रा के दुख झेलता हुआ चला जा रहा था। हर मंज़िल पर लोग हुसैन से आग्रह करते थे कि ख़ुदा के लिए वापिस चले जाइये, यज़ीद की शक्ति बहुत बड़ी है और उनकी सहस्त्रों की संख्या में सेनाएँ जमा हो रही हैं। मगर हुसैन मुहम्मद के नवासे और अली के बेटे थे, जिन्होने ख़ुदा के बताए रास्ते पर चलने के लिए हमेशा ख़ुशी-ख़ुशी दुख झेला था, वे अपने इरादे में अटल रहे और यात्रा की कठनाइयाँ सहन करते हुए आगे बढ़ते रहे। अभी हुसैन इराक़ की राजधानी कूफ़े से, यहाँ यज़ीद के हाकीम क़ब्ज़ा किये हुए थे, कई मंज़िल इधर ही थे कि यज़ीद की सेनाओं ने रास्ता रोक लिया। उनको कूफ़े जाने से रोका। कुछ दूर पर एक छोटी-सी बस्ती थी जो नेनवा कहलाती थी। कभी यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान रहा था, मगर अब उजाड़ था, वहाँ फ़रात नदी की एक शाखा मरुस्थल को सैराब करती थी, यही बस्ती कर्बला भी कहलाती थी।
मुहर्रम के महीने की 2 या 3 तारीख़ थी जब इमाम हुसैन ने अपने क़ाफ़िले के साथ कर्बला के मैदान में अपने डेरे डाले। पहले नहर के किनारे डेरे लगाये गये थे कि नन्हें बच्चों का साथ है, पानी की तकलीफ़ न हो। मगर यजीदी सेना ने वहाँ डेरा न लगने दिये। दूर मरुस्थल में आपका कैंप लगा। अब यज़ीद की फौंजो पर फौजें आनी शुरू हो गयीं। सही ऐतिहासिक रिवायतों में यज़ीद की फौंजों की गिनती तीस व चालीस हज़ार के बीच बतायी जाती है। इधर इमाम हुसैन के साथ सत्तर-बहत्तर आदमी थे और उनमें भी कुछ बहुत बूढ़े लोग थे और कुछ नयी उम्र के लड़के। चन्द जवान और नौजवान भी थे। और इतिहास साढ़े तेरह सौ वर्ष से इस पर चकित है कि इन बहत्तर साथियों के साथ हुसैन ने टक्कर ली थी यज़ीद की चालीस हज़ार की फ़ौज से; और यही नहीं, कई घण्टे मुक़ाबले के बाद शहादत पायी थी।
3 से 7 तक इमाम हुसैन और और उनके कुछ बुज़ुर्ग साथी यज़ीद की सेना के अधिकारियों से बात-चीत करते रहे, उन्हें समझाते रहे कि तुम क्यों निर्दोषों का ख़ून अपने सिर लेते हो। हुसैन ने यह भी कहा कि मुझे यज़ीद के पास ले चलो, मैं स्वंय उससे बात-चीत कर लूँगा। ये रिवायत भी है कि उन्होने ने कहा, मैं किसी और देश, मसलन हिन्दुस्तान की ओर चला जाऊँगा। मगर इन अधिकारियों को सख़्ती से यह आदेश दिया गया था कि या हुसैन से बैद्यत लेना या उसका सिर काटकर लाना।
7 मुहर्रम से यज़ीद की फौजों ने नदी पर पहरा बिठा दिया और हुसैन की फौजों तक पानी का पहुँचना बन्द हो गया और रसद (खाद्य-सामग्री) के रास्तों की नाका बंदी कर दी गयी। वह समझते थे कि हुसैन और उनके साथी अगर और किसी तरह से नहीं दब सकते तो नन्हें बच्चों और औरतों की भूख प्यास तो उनको झुका ही देगी। मगर वे क्या जानते थे कि हुसैन का सिर कट सकता है, अत्याचार और झूठ के सामने झुक नहीं सकता।
मुहर्रम की 10 तारीख़ थी। इमाम हुसैन और उसके साथी सुबह की नमाज पढ़ रहे थे कि यज़ीद की फौजों ने तीर फेंककर जंग की पहल कर दी। कुछ लोग वहीं नमाज पढ़ते हुए शहीद हो गये। इसके बाद वह स्मरणीय युद्ध शुरू हुआ जिसने दुनिया में ‘कर्बला की घटना’ के नाम से ख्याति प्राप्त की।
पहले हुसैन के साथियों ने लड़ाई में जान क़ुर्बान की। उन्होने कहा, हम अपनी ज़िन्दगी में हुसैन पर और उनके वंश पर आँच न आने देंगे। इनमें एक ख़ुदा का बंदा, सत्य और न्यायप्रिय व्यक्ति ‘हुर’ भी था जो पहले यज़ीद की फ़ौज का एक बड़ा अधिकारी था। मगर इमाम हुसैन की सच्चाई पाकर वह धन सम्पत्ति और पद को ठुकराकर इमाम हुसैन की तरफ़ आ गया और आपकी तरफ़ से लड़कर जान क़ुर्बान कर दी और इस तरह कर्बला के इतिहास में उसका नाम अमर हो गया। कर्बला की जंग में इमाम हुसैन सहित बहत्तर शहीदों के नाम मिलते हैं। उनमें इमाम के मित्र और साथी भी थे और उनके अट्ठारह रिश्तेदार भी। रिश्तेदारों में इमाम के बेटे, चार भतीजे, चार सौतेले भाई, दो भाँजे और कुछ अन्य संबंधी सम्मिलित हैं। पुरुषों में केवल इमाम के बड़े बेटे सज्जाद ज़िन्दा रहे जो उस समय सख़्त बीमार थे, इसलिए जिहाद में शरीक नहीं हुए थे।
दुनिया आज भी हैरान है कि सुबह से दोपहर तक इन सत्तर बहत्तर ‘मुजाहिदों’ ने कैसे हजारों की फ़ौज का सामना किया। मगर यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसे आज तक कोई नहीं झुठला सका। एक-एक बहादुर ने अकेले जाकर फ़ौज से टक्कर ली, सामना किया और जंग के मैदान में सीने पर वार खाता हुआ शहीद होकर गिर पड़ा। दोस्तों के बाद संबंधियों ने अपने सिर न्यौछावर किये, भाइयों ने जाने दी, भतीजो ने जंग करके हक़ (सत्य) और चाचा के पक्ष में शहादत पायी, भाँजों को, जो अभी बहुत कम उम्र के थे, उनकी धैर्यवान उनकी साहसी माँ ने जंग पर इकट्ठा भेजा और जब वे नयी उम्र के लड़के बहादुरी से लड़कर शहीद हुए तो उसने ख़ुदा के सामने सजदे में सिर झुका दिया कि उसकी कमाई अच्छे ठिकाने लगी।
भतीजे कासिम ने एक रात की ब्याही दुल्हन का भी ख्याल न किया, माँ की मुहब्बत की परवाह न की और दुश्मन से लड़कर चचा पर क़ुर्बान हो गये। फिर हुसैनी सेना के सबसे वीर और योद्धा सिपाही अब्बास बिन अली, जो ध्वजावाहक़ और सेनापति भी थे, बेमिसाल बहादुरी के जौहर दिखाकर शहीद हो गये। अली अकबर, हुसैन का अट्ठारह वर्ष का कड़यल जवान बेटा, बाप की हिमायत में लड़कर शहीद हुआ, यहाँ तक की कोई बाकी न रहा। अब इमाम हुसैन जो सुबह से जंग के हथियार सजा चुके थे और लाश पर लाश उठाकर ला रहे थे, दुश्मन के सामने जाने से पहले डेरे में रुख़सत के लिए आये कि बीमार बेटे और बहन से मिल लें। नन्हें बच्चों और विधवा औरतों को ढांरस बँधायें और ख़ुदा पर भरोसा रखने और हर सख़्ती को झेल लेने का सबक देकर खुद भी शहादत के लिए जायें। इस वक़्त आपकी नज़र दूध पीते बच्चे पर पड़ी जो भूख प्यास से अधमरा था और उसकी माँ बेचैन थी कि बच्चे को दो घूँट पानी मिल जाय तो शायद उसकी जान बच जाये। इमाम हुसैन बच्चे को गोद में लेकर यज़ीद की फ़ौज के सामने गये। हुसैन समझते थे कि जिन निर्दयी लोगों ने अकबर की जवानी पर दया न की, रसूल के नवासे की बात न सुनी, अली असगर को पानी क्यों देंगे ?
मगर उनकी शहादत के उद्देश्य को और अधिक स्पष्ट करने के लिए इस नन्हें शहीद की गवाही भी ज़रूरी थी। पानी के सवाल पर यज़ीदी-सेना ने तीर बरसाये। बच्चे की गरदन पर तीर बैठा और वह बाप के हाथों में ख़त्म हो गया। अब हुसैन ने तलवार खींची। अरब के सबसे बड़े बहादुर, अली के बेटे हुसैन की वीरता की धाक तो सारे अरब और अजय, शाम और रे में फैली थी। कुछ देर उन्होने बेमिसाल साहस से दुश्मनों का मुक़ाबला किया और फिर तीरों, नेगों, तलवारों और पत्थरों के हजारों घावों से घायल होकर, उस समय घोड़े से अपने को गिराया, जब अस्त्र की अज़ान की आवाज़ आ रही थी। उन्होने जलती रेत पर अपना घायल मस्तक सजदे के लिए झुका दिया। उस हाल में दुश्मन के बारह अफसरों ने आपका मुबारक सिर तन से अलग कर दिया। इमाम हुसैन की शहादत के बाद भी यज़ीद की फौजों की दुश्मनी की आग ठण्डी नहीं हुई, उन्होने शहीदों के सिर काट लिए कि यज़ीद को पेश करें और रसूल के घराने की इज़्ज़तदार बीवियों के सिरों से चादरें उतार लीं, डेरे जला दिये, स्त्रियों बच्चों और बीमार सय्यद सज्जाद की कर्बला से दमिश्क़ तक, जो यज़ीद की राजधानी थी, ले गये और वहाँ क़ैद कर दिया गया और कर्बला के मैदान में बहत्तर शहीदों की बेसिर और बेकफ़न-दफ़न लाशें पड़ी रह गयीं।
यह इतिहास की ऐसी शोकपूर्ण घटना है कि जिसकी यादें साढ़े तेरह सौ वर्ष से सारी दुनिया में मुसलमान मनाते हैं और केवल मुसलमान ही नहीं, दुनिया भर के सत्यप्रेमी मानवता के पुजारियों ने हुसैन के बेजोड़ बलिदान को सराहा और श्रद्धांजलि अर्पित की है। हिन्दुस्तान में भी सैकड़ों वर्ष से हर साल मुहर्रम बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है और कितनी जगहों पर ग़ैर मुस्लिम भी इसको अपने रंग में मनाते हैं।
कर्बला की यह घटना है जो ‘अनीस’ के काव्य पृष्ठभूमि है। साधारण ऐसिहासिक घटनाओं को कवि ने कल्पना के नेत्रों मे देखकर इसमें ऐसे जीते-जागते रंग भरे हैं, और इनको इस ढंग से प्रस्तुत किया है कि हम भी अपने ख़यालों में मानो वही घटनाएँ देखने लगते हैं और उनसे प्रभावित होते हैं।
अन्त में ‘अनीस’ के काव्य में कर्बला की घटना से संबंधित जिन मुख्य चरित्रों का चित्रण हुआ है, उनके नाम और उनकी उपाधियाँ लिख दी हैं ताकि पढ़ने वालों को नाम, उपाधियाँ और रिश्ते समझने में आसानी हो।
हमें आशा है कि ‘अनीस’ शताब्दी के अवसर पर यादगारे-अनीस-कमेटी की ओर से उर्दूवालों का यह उपहार हिन्दी पढ़ने वाले क़द्र की नज़र से देखेंगे और पसंद करेंगे। इन रचनाओं के देवनागरी लिप्यन्तरण में श्री मोहम्मद याकूब के सहयोग के लिए हम आभारी हैं।
हज़रत मुहम्मद, पैग़म्बर-इस्लाम ने जब अरब देश में हक़ (सत्य) की आवाज़ उठायी और ख़ुदा का पावन सन्देश लोगों को पहुँचाना शुरु किया तो प्रारम्भ में अरब-निवासियों ने उनका घोर विरोध किया और दुश्मनी पर कमर बाँध ली। उनको हर तरह से दुख दिये और कोशिश की कि इस्लाम को न फैलने दें। इस विरोध और दुश्मनी में अरब के एक प्रसिद्ध क़बीले के लोग ‘बनी उमय्या’ आगे-आगे थे। उनको ‘बनी हाशिम’ से (जिस क़बीले से हज़रत रसूल थे) दुश्मनी थी; इसलिए वो लोग सज्जनता, धर्म-कर्म और परोपकार के कारण प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते थे और काबे (ख़ुदा का घर) का संरक्षण का भार उन्ही को मिला हुआ था।
जब सारे अरब में इस्लाम फैल गया तो, ‘बनी उमय्या’ ने भी इस्लाम स्वीकार कर लिया। मगर इनमें से बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्होने मस्लहत देखकर नया धर्म अपना लिया था और चाहते थे कि अब इनके अन्दर रहकर इसकी जड़ें काटें।
हज़रत मुहम्मद के देहान्त के उपरान्त उनके जो पहले चार ख़लीफ़ा (अर्थात् उनके उत्तराधिकारी) हुए उन्होंने रसूल की शिक्षाओं का पालन किया और इस्लाम की सच्ची आत्मा और मूल उद्देश्य के सामने रखकर काम किया। ख़लीफ़ा लोगों का सेवक भी था और धर्मिक पेशवा भी। वह शासन की समस्याएँ जन साधारण की राय लेकर तय करता था। इस ख़िलाफ़त का बादशाही और सलतनत से दूर-दूर तक कोई वास्ता न था, लेकिन इसी समय में बनी उनय्या के कुछ लोगों ने अन्दर-अन्दर अपना असर जमाना शुरू कर दिया था। जब हज़रत अली ने (जो हज़रत इमाम हुसैन के पिता थे) ख़िलाफ़त सँभाली तो इस्लाम और हज़रत मुहम्मद की शिक्षाओं को फैलाने की ज़्यादा कोशिश की और इस्लाम की सही दिशा की रोशनी में ख़िलाफ़त का काम करना शुरू किया। मगर माबिया ने, जो बनी उमय्या का एक सरदार और प्रभावशाली व्यक्ति था, हज़रत अली को ख़लीफ़ा मानने से इन्कार कर दिया, और शाम में अपना राज्य स्थापित कर लिया।
उसका ठाट-बाट, अन्दाज़ सब शबाना थे। हज़रत अली से और उससे कई लड़ाइयाँ भी हुईं। मुसलमानों में ज़्यादा लोग हज़रत अली के साथ थे और उन्हीं को इस्लाम का सच्चा ख़लीफ़ा मानते थे। मगर धन और शक्ति के भूखे बहुत से लोग माबिया के साथ भी मिल गये थे। यहाँ तक की चालीस हिज़री में हज़रत अली को शहीद कर दिया गया। उनकी शहादत के बाद अरब और ईराक के लोगों ने उनके बड़े बेटे इमाम बसन को अपना ख़लीफ़ा बनाया। मगर इधर माबिया ने अपनी ख़िलाफ़त का एलान कर दिया और फिर लड़ाई छिड़ने का अन्देशा हुआ। इमाम हसन बड़े सुलहपसन्द इन्सान थे और शान्ती से जीवन व्यतीत करना चाहते थे। उन्होंने कौम को लड़ाई और खून-खराबे से बचाने के लिए माबिया से चन्द शर्तों पर सुलह कर ली। इनमें से एक यह थी कि माबिया अपनी ज़िन्दगी भर तक ख़लीफ़ा रहेंगे, मगर किसी को अपना उत्तराधिकारी न बनाएँगे और उनके बाद ख़िलाफ़त हज़रत हसन या इमाम हुसैन को मिलेगी। मावया ने कुछ वर्ष बाद इमाम हसन को भी चुपके से विष देकर मरवा डाला और सबसे बड़ी शर्त को तोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी ही में अपने बेटे यज़ीद के लिए लोगों से बैद्यत लेनी शुरू कर दी। और जब माविया का देहान्त हुआ तो यज़ीद ने रसूल का ख़लीफ़ा होने का दावा कर दिया।
यज़ीद और माबिया में एक बड़ा फ़र्क था। बहुत-सी कमज़ोरियों और त्रुटियों के बावजूद माविया और ज़ाहिर में इस्लाम के आदेशों का मानता था और कुछ न कुछ इस्लामी-शिक्षा को सामने रखता था। यज़ीद का चरित्र नितान्त दोष युक्त था। वह न इस्लाम के खुले हुक्मों की पाबन्दी करता था, न उसकी शिक्षा को मानता था और न इस्लाम से उसे ज़रा-सा भी कोई लगाव था। वह ज़ालिम भी था और पापी भी। हज़रत रसूल और उसके वंश का कट्टर दुश्मन था इसलिए कि अब भी अरब में लोग श्रद्धा और प्रतिष्ठा में सबसे ऊँचा स्थान उन्हीं का समझते थे और उनसे प्रेम करते थे।
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1.बैयत का अर्थ है कि किसी के हाथ में हाथ दे देना, उसे अपना धार्मिक गुरु या पेशवा मान लेना.
माविया के बाद यज़ीद ने रसूल का ख़लीफ़ा होने का ऐलान कर दिया। इससे अरब में, विषेशतः ईराक में, लोगो में परेशानी और भय फैल गया। यज़ीद ने बहुत लोगों को अत्याचार या शक्ति से या लालच देकर चुप कर दिया था। मगर कुछ ख़ुदा के बन्दे ऐसे भी थे जो इन बाँतो से डरने वाले न थे। इनमें हज़रत अली के बेटे और हज़रत मुहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन का नाम सबसे ज़्यादा मशहूर है।
यज़ीद के मित्रों ने उसे सलाह दी कि सबसे पहले वह इमाम हुसैन से निबटे और उनसे अपनी बैद्यत ले अर्थात वे उसे रसूल का जानशीन और इस्लाम का ख़लीफ़ा मान लें। उसने मदीने के हाकिम को हुक्म भेजा कि हुसैन से मेरी बैद्यत लो, अन्यथा उसको क़त्ल कर डालो। यह इस्लाम के विरुद्ध बहुत बड़ा षणयंत्र था। वे लोग समझते थे कि यदि रसूल के नवासे ने, जिसके घर से इस्लाम निकला है और जो इस्लाम की शिक्षा को सबसे बड़ा जानने वाला और इस पर अमल करने वाला है, यज़ीद को अपना ख़लीफ़ा मान लिया, तो उसका हर काम और हर ग़लत अनपयुक्त कर्म, इस्लाम की शिक्षा के अनुरूप समझा जायगा; क्योंकि जिसको रसूल का नवासा अपना ख़लीफ़ा और पथ प्रदर्शक मान लें तो फिर शेष क्या रह जाता है ? और इस तरह इस्लाम की मूल शिक्षा और उसकी सच्ची आत्मा ख़त्म हो जायगी।
इमाम हुसैन पहले ही से हालात का रुख देख और समझ रहे थे और अपना रास्ता चुन चुके थे। वह जानते थे कि इस वक्त उन्हें एक बड़ी कठिन परीक्षा का सामना करना है। जब मदीने के हाकिम ने बुलाकर उनसे कहा कि वह यज़ीद को ख़लीफ़ा मानकर अपनी बैद्यत कर ले, तो फ़ैसला करने में उन्हें क्षण भर भी न लगा और उन्होने निर्भय होकर ऐसे व्यक्ति को रसूल का ख़लीफ़ा मानने से इन्कार कर दिया और अपने घर चले गये; यह जानते हुए भी कि यज़ीद का अगला कदम उनके क़त्ल की तरफ़ ही उठेगा। मदीने के हाकिम के लिए ख़ास मदीने के अन्दर इमाम हुसैन को क़त्ल करना आसान न था। इधर इमाम हुसैन ने समझ लिया कि इस्लाम और सच्चाई को बचाने के लिए उन्हें जान तो देना है मगर इस तरह की दुनिया को स्पष्ट मालूम हो कि हुसैन ने क्यों जान दी ? और उनके दुश्मनों ने उन्हें क्यों मारा ? यानी सत्य और असत्य की जो लड़ाई संसार में सदैव से होती आयी है वह एक नये ढंग से लड़कर दिखाई जाय।
इमाम हुसैन ने परिस्थिति को देखकर और परखकर मदीना छोड़ने का निश्चय कर लिया। पहले उनका इरादा इसके लिए मक्के जाने का, और फिर ईराक की ओर रवाना होने का था, जहाँ के लोग उन्हें पत्र लिखकर बुला रहे थे कि आइये, हम यज़ीद को रसूल का ख़लीफ़ा नहीं मानते, आप आकर हमें यज़ीद के हाकिमों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाइये। जब इमाम हुसैन ने वंश के लोगों के सामने ये समस्या रखी तो सब लोगो ने एक आवाज़ में होकर कहा कि हक़ (सत्य) और बातिल (झूठ) की इस लड़ाई में हम आपका साथ देंगे। घराने की स्त्रियों, बहनों, बेटियों, भावजों और पत्नियों ने कहा कि ख़ुदा की राह में क़ुर्बानियाँ देना और हक़ (सच्चाई) का साथ देना हमारा कर्तव्य भी है, और विर्सा भी, हम अभी साथ रहेंगे। कुछ मित्रों और साथियों ने आग्रह किया कि हम आपके साथ जायेंगे। इमाम हुसैन ने प्रत्येक अवसर पर हर जगह बार-बार लोगों को बताया और समझाया कि बहुत बड़ी शक्ति से मुक़ाबला होगा; मैं ख़िलाफ़त प्राप्त करने नहीं, इस्लाम के लिए जान देने जा रहा हूँ। मगर उनके साथियों ने यही कहा कि हम आपके साथ जियेंगे और आपके साथ मरेंगे।
ग़रज़ हुसैन अपने घराने वालों के साथ मदीने से मक्का रवाना हुए। केवल एक बीमार बेटी और बूढ़ी नानी और सौतेली माँ मदीने में रह गयीं। पहले वह मक्के गये मगर वहाँ भी यज़ीद के लोग मौजूद थे जो चाहते थे कि हज के अवसर पर चुपके से इमाम हुसैन को मार डालें और अपराध किसी निर्दो, के सिर मढ़ दिया जाये। मगर हुसैन तो यह चाहते थे कि जान इस तरह दें कि दुनिया को अच्छी तरह मालूँम हो जाय कि हुसैन ने क्यों जान दी, और किसने उनको मारा ? इसलिए आप हज किये बिना ईराक की तरफ़ रवाना हो गये। ये छोटा सा क़ाफ़िला अरब की गर्मी की कठिन यात्रा के दुख झेलता हुआ चला जा रहा था। हर मंज़िल पर लोग हुसैन से आग्रह करते थे कि ख़ुदा के लिए वापिस चले जाइये, यज़ीद की शक्ति बहुत बड़ी है और उनकी सहस्त्रों की संख्या में सेनाएँ जमा हो रही हैं। मगर हुसैन मुहम्मद के नवासे और अली के बेटे थे, जिन्होने ख़ुदा के बताए रास्ते पर चलने के लिए हमेशा ख़ुशी-ख़ुशी दुख झेला था, वे अपने इरादे में अटल रहे और यात्रा की कठनाइयाँ सहन करते हुए आगे बढ़ते रहे। अभी हुसैन इराक़ की राजधानी कूफ़े से, यहाँ यज़ीद के हाकीम क़ब्ज़ा किये हुए थे, कई मंज़िल इधर ही थे कि यज़ीद की सेनाओं ने रास्ता रोक लिया। उनको कूफ़े जाने से रोका। कुछ दूर पर एक छोटी-सी बस्ती थी जो नेनवा कहलाती थी। कभी यह एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान रहा था, मगर अब उजाड़ था, वहाँ फ़रात नदी की एक शाखा मरुस्थल को सैराब करती थी, यही बस्ती कर्बला भी कहलाती थी।
मुहर्रम के महीने की 2 या 3 तारीख़ थी जब इमाम हुसैन ने अपने क़ाफ़िले के साथ कर्बला के मैदान में अपने डेरे डाले। पहले नहर के किनारे डेरे लगाये गये थे कि नन्हें बच्चों का साथ है, पानी की तकलीफ़ न हो। मगर यजीदी सेना ने वहाँ डेरा न लगने दिये। दूर मरुस्थल में आपका कैंप लगा। अब यज़ीद की फौंजो पर फौजें आनी शुरू हो गयीं। सही ऐतिहासिक रिवायतों में यज़ीद की फौंजों की गिनती तीस व चालीस हज़ार के बीच बतायी जाती है। इधर इमाम हुसैन के साथ सत्तर-बहत्तर आदमी थे और उनमें भी कुछ बहुत बूढ़े लोग थे और कुछ नयी उम्र के लड़के। चन्द जवान और नौजवान भी थे। और इतिहास साढ़े तेरह सौ वर्ष से इस पर चकित है कि इन बहत्तर साथियों के साथ हुसैन ने टक्कर ली थी यज़ीद की चालीस हज़ार की फ़ौज से; और यही नहीं, कई घण्टे मुक़ाबले के बाद शहादत पायी थी।
3 से 7 तक इमाम हुसैन और और उनके कुछ बुज़ुर्ग साथी यज़ीद की सेना के अधिकारियों से बात-चीत करते रहे, उन्हें समझाते रहे कि तुम क्यों निर्दोषों का ख़ून अपने सिर लेते हो। हुसैन ने यह भी कहा कि मुझे यज़ीद के पास ले चलो, मैं स्वंय उससे बात-चीत कर लूँगा। ये रिवायत भी है कि उन्होने ने कहा, मैं किसी और देश, मसलन हिन्दुस्तान की ओर चला जाऊँगा। मगर इन अधिकारियों को सख़्ती से यह आदेश दिया गया था कि या हुसैन से बैद्यत लेना या उसका सिर काटकर लाना।
7 मुहर्रम से यज़ीद की फौजों ने नदी पर पहरा बिठा दिया और हुसैन की फौजों तक पानी का पहुँचना बन्द हो गया और रसद (खाद्य-सामग्री) के रास्तों की नाका बंदी कर दी गयी। वह समझते थे कि हुसैन और उनके साथी अगर और किसी तरह से नहीं दब सकते तो नन्हें बच्चों और औरतों की भूख प्यास तो उनको झुका ही देगी। मगर वे क्या जानते थे कि हुसैन का सिर कट सकता है, अत्याचार और झूठ के सामने झुक नहीं सकता।
मुहर्रम की 10 तारीख़ थी। इमाम हुसैन और उसके साथी सुबह की नमाज पढ़ रहे थे कि यज़ीद की फौजों ने तीर फेंककर जंग की पहल कर दी। कुछ लोग वहीं नमाज पढ़ते हुए शहीद हो गये। इसके बाद वह स्मरणीय युद्ध शुरू हुआ जिसने दुनिया में ‘कर्बला की घटना’ के नाम से ख्याति प्राप्त की।
पहले हुसैन के साथियों ने लड़ाई में जान क़ुर्बान की। उन्होने कहा, हम अपनी ज़िन्दगी में हुसैन पर और उनके वंश पर आँच न आने देंगे। इनमें एक ख़ुदा का बंदा, सत्य और न्यायप्रिय व्यक्ति ‘हुर’ भी था जो पहले यज़ीद की फ़ौज का एक बड़ा अधिकारी था। मगर इमाम हुसैन की सच्चाई पाकर वह धन सम्पत्ति और पद को ठुकराकर इमाम हुसैन की तरफ़ आ गया और आपकी तरफ़ से लड़कर जान क़ुर्बान कर दी और इस तरह कर्बला के इतिहास में उसका नाम अमर हो गया। कर्बला की जंग में इमाम हुसैन सहित बहत्तर शहीदों के नाम मिलते हैं। उनमें इमाम के मित्र और साथी भी थे और उनके अट्ठारह रिश्तेदार भी। रिश्तेदारों में इमाम के बेटे, चार भतीजे, चार सौतेले भाई, दो भाँजे और कुछ अन्य संबंधी सम्मिलित हैं। पुरुषों में केवल इमाम के बड़े बेटे सज्जाद ज़िन्दा रहे जो उस समय सख़्त बीमार थे, इसलिए जिहाद में शरीक नहीं हुए थे।
दुनिया आज भी हैरान है कि सुबह से दोपहर तक इन सत्तर बहत्तर ‘मुजाहिदों’ ने कैसे हजारों की फ़ौज का सामना किया। मगर यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसे आज तक कोई नहीं झुठला सका। एक-एक बहादुर ने अकेले जाकर फ़ौज से टक्कर ली, सामना किया और जंग के मैदान में सीने पर वार खाता हुआ शहीद होकर गिर पड़ा। दोस्तों के बाद संबंधियों ने अपने सिर न्यौछावर किये, भाइयों ने जाने दी, भतीजो ने जंग करके हक़ (सत्य) और चाचा के पक्ष में शहादत पायी, भाँजों को, जो अभी बहुत कम उम्र के थे, उनकी धैर्यवान उनकी साहसी माँ ने जंग पर इकट्ठा भेजा और जब वे नयी उम्र के लड़के बहादुरी से लड़कर शहीद हुए तो उसने ख़ुदा के सामने सजदे में सिर झुका दिया कि उसकी कमाई अच्छे ठिकाने लगी।
भतीजे कासिम ने एक रात की ब्याही दुल्हन का भी ख्याल न किया, माँ की मुहब्बत की परवाह न की और दुश्मन से लड़कर चचा पर क़ुर्बान हो गये। फिर हुसैनी सेना के सबसे वीर और योद्धा सिपाही अब्बास बिन अली, जो ध्वजावाहक़ और सेनापति भी थे, बेमिसाल बहादुरी के जौहर दिखाकर शहीद हो गये। अली अकबर, हुसैन का अट्ठारह वर्ष का कड़यल जवान बेटा, बाप की हिमायत में लड़कर शहीद हुआ, यहाँ तक की कोई बाकी न रहा। अब इमाम हुसैन जो सुबह से जंग के हथियार सजा चुके थे और लाश पर लाश उठाकर ला रहे थे, दुश्मन के सामने जाने से पहले डेरे में रुख़सत के लिए आये कि बीमार बेटे और बहन से मिल लें। नन्हें बच्चों और विधवा औरतों को ढांरस बँधायें और ख़ुदा पर भरोसा रखने और हर सख़्ती को झेल लेने का सबक देकर खुद भी शहादत के लिए जायें। इस वक़्त आपकी नज़र दूध पीते बच्चे पर पड़ी जो भूख प्यास से अधमरा था और उसकी माँ बेचैन थी कि बच्चे को दो घूँट पानी मिल जाय तो शायद उसकी जान बच जाये। इमाम हुसैन बच्चे को गोद में लेकर यज़ीद की फ़ौज के सामने गये। हुसैन समझते थे कि जिन निर्दयी लोगों ने अकबर की जवानी पर दया न की, रसूल के नवासे की बात न सुनी, अली असगर को पानी क्यों देंगे ?
मगर उनकी शहादत के उद्देश्य को और अधिक स्पष्ट करने के लिए इस नन्हें शहीद की गवाही भी ज़रूरी थी। पानी के सवाल पर यज़ीदी-सेना ने तीर बरसाये। बच्चे की गरदन पर तीर बैठा और वह बाप के हाथों में ख़त्म हो गया। अब हुसैन ने तलवार खींची। अरब के सबसे बड़े बहादुर, अली के बेटे हुसैन की वीरता की धाक तो सारे अरब और अजय, शाम और रे में फैली थी। कुछ देर उन्होने बेमिसाल साहस से दुश्मनों का मुक़ाबला किया और फिर तीरों, नेगों, तलवारों और पत्थरों के हजारों घावों से घायल होकर, उस समय घोड़े से अपने को गिराया, जब अस्त्र की अज़ान की आवाज़ आ रही थी। उन्होने जलती रेत पर अपना घायल मस्तक सजदे के लिए झुका दिया। उस हाल में दुश्मन के बारह अफसरों ने आपका मुबारक सिर तन से अलग कर दिया। इमाम हुसैन की शहादत के बाद भी यज़ीद की फौजों की दुश्मनी की आग ठण्डी नहीं हुई, उन्होने शहीदों के सिर काट लिए कि यज़ीद को पेश करें और रसूल के घराने की इज़्ज़तदार बीवियों के सिरों से चादरें उतार लीं, डेरे जला दिये, स्त्रियों बच्चों और बीमार सय्यद सज्जाद की कर्बला से दमिश्क़ तक, जो यज़ीद की राजधानी थी, ले गये और वहाँ क़ैद कर दिया गया और कर्बला के मैदान में बहत्तर शहीदों की बेसिर और बेकफ़न-दफ़न लाशें पड़ी रह गयीं।
यह इतिहास की ऐसी शोकपूर्ण घटना है कि जिसकी यादें साढ़े तेरह सौ वर्ष से सारी दुनिया में मुसलमान मनाते हैं और केवल मुसलमान ही नहीं, दुनिया भर के सत्यप्रेमी मानवता के पुजारियों ने हुसैन के बेजोड़ बलिदान को सराहा और श्रद्धांजलि अर्पित की है। हिन्दुस्तान में भी सैकड़ों वर्ष से हर साल मुहर्रम बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है और कितनी जगहों पर ग़ैर मुस्लिम भी इसको अपने रंग में मनाते हैं।
कर्बला की यह घटना है जो ‘अनीस’ के काव्य पृष्ठभूमि है। साधारण ऐसिहासिक घटनाओं को कवि ने कल्पना के नेत्रों मे देखकर इसमें ऐसे जीते-जागते रंग भरे हैं, और इनको इस ढंग से प्रस्तुत किया है कि हम भी अपने ख़यालों में मानो वही घटनाएँ देखने लगते हैं और उनसे प्रभावित होते हैं।
अन्त में ‘अनीस’ के काव्य में कर्बला की घटना से संबंधित जिन मुख्य चरित्रों का चित्रण हुआ है, उनके नाम और उनकी उपाधियाँ लिख दी हैं ताकि पढ़ने वालों को नाम, उपाधियाँ और रिश्ते समझने में आसानी हो।
हमें आशा है कि ‘अनीस’ शताब्दी के अवसर पर यादगारे-अनीस-कमेटी की ओर से उर्दूवालों का यह उपहार हिन्दी पढ़ने वाले क़द्र की नज़र से देखेंगे और पसंद करेंगे। इन रचनाओं के देवनागरी लिप्यन्तरण में श्री मोहम्मद याकूब के सहयोग के लिए हम आभारी हैं।
मीर अनीस : परिचय
मीर ‘अनीस’ का नाम बबर अली था। लेकिन जिस नाम से
उन्होने
ख्याति प्राप्त की, वह उनका तख़ल्लुस (उपनाम अथवा सहित्यिक नाम)
‘अनीस’ है। 1974 ई. में मीर
‘अनीस’ के
देहान्त को पूरे सौ वर्ष हो चुकें हैं और उनकी स्मृति में अनीस-शताब्दी
मनायी जा रही है। इस अवसर पर यह मुनासिब मालूम हुआ कि उर्दू के इस
अद्वितीय एवं सुविख्यात कवि के काव्य का संकलन हिन्दी में भी प्रकाशित
किया जाय ताकि हिन्दी वाले भी उनकी कला से परिचित हो सकें। यूँ तो पिछले
कुछ वर्षों में हिन्दी में उर्दू की बहुत-सी अच्छी पुस्तकें छपी हैं,
उनमें बहुत से उर्दू कवियों के काव्य या संकलन भी हैं। इस तरह हिन्दी
पढ़ने वाले उर्दू के बहुत कवियों से परिचित हो चुके हैं। लेकिन मीर
‘अनीस’ का काव्य अभी तक हिन्दी में नहीं छपा था।
‘अनीस’ के काव्य को हिन्दी के लिए सम्पादित करने का
काम मुझे
सौंपा गया और मैंने अपनी बस भर मेहनत और कोशिश से इसे पूरा किया।
मीर ‘अनीस’ ऐसे सुविख्यात घराने की संतान थे, जो ज्ञान और साहित्य में सदा से रुचि रखते थे। उनके दादा मीर हसन बहुत प्रसिद्ध कवि थे। उनकी सुप्रसिद्ध मसनवी (काव्य कथा) ‘सहरुलबयान’ उर्दू की सबसे अच्छी मनसवी मानी समझी जाती है। उनके पिता मीर ख़लीक़ भी अच्छे कवि थे। मर्सिया-गोई (कविता रूप में हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की घटनाओं का शोक पूर्ण वर्णन) में उन्होंने बड़ा नाम पैदा किया। पहले हम संक्षिप्त रूप में ‘मर्सिये’ के संबंध में बता दें। यूँ तो किसी मरने वाले की याद में जो भी कविता लिखी जाय उसको ‘मर्सिया’ कहते हैं; लेकिन उर्दू में जब केवल ‘मर्सिये’ का शब्द बोला जाय तो अभिप्राय उन कविताओं से होगा जो हज़रत रसूल और उनके घराने, विशेषकर उनके नवासे इमाम हुसैन की शहादत पर लिखी गयी हैं। शहादत के वर्णन में रुबाइयाँ (चार पंक्तियों का पद) भी लिखी जाती है मगर ‘मर्सिये’ से तात्पर्य केवल वो कविता है जिसमें छः पंक्तियों का एक पद होता है और जो ‘मुसद्दस’ कहलाती है। इस पूरी कविता में कोई विशेष घटना का क्रम के साथ वर्णन होता है।
यूँ तो इमाम हुसैन की शहादत पर ‘मर्सिये’ उर्दू भाषा के बिलकुल प्रारंभिक काल से ही लिखे जाते रहें हैं। दक्कनि (दक्षिणी) उर्दू में शुरू से ही ‘मर्सिया’ मिलता है। मगर उस समय इसकी कोई ख़ास शक्ल तय नहीं हुई थी। ये मर्सिये चौ-मिस्त्र (चार पंक्तियों वाले) भी होते थे और पाँच मिस्त्र (पंक्तियो) वाले भी। जब छह मिस्त्र (पंक्तियों) वाली कविता में मर्सिये लिखे गये तो बहुत ज़्यादा पसंद किये गये और फिर मर्सिये के लिए यही शक्ल रिवाज पा गयी।
लेकिन उस समय मर्सिया लिखने वाले कवि प्रथम श्रेणी के कवि नहीं समझे जाते थे। कुछ लोग तो ‘बिगड़ा शहर मर्सिया-गो’ (अर्थात कवि बिगड़ता है तो मर्सिया लिखता है) फबती कसते थे। इसकी बड़ी वजह यह मालूम होती है कि बड़े-बड़े कवियों ने मर्सिये की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया, केवल धार्मिक कर्तव्य समझकर ‘मर्सिया’ भी लिख लिया जाता था। सबसे पहले लखनऊ के दो प्रमुख कवियों, मीर ‘ज़मीर’ एवं मीर ‘ख़लीक़’ ने मर्सिये को भरपूर कलात्मक क्षमता के साथ पेश किया और काव्य में मर्सिये का विशेष स्थान बनाया। ‘अनीस’ इन्हीं मीर ख़लीक़ के सुपुत्र थे। उन्हें अपने पिता से ही ये विर्सा मिला था। मीर अनीस ने युवावस्था में कुछ ग़ज़लें भी लिखी थीं मगर मीर ख़लीक़ ने उन्हें मर्सिया लिखने का परामर्श दिया और फिर उन्होंने मर्सिये को ही अपना काव्य क्षेत्र बनाया। दूसरी ओर, मीर ज़मीर के शिष्य मिर्ज़ा ‘दबीर’ ने भी मर्सिये को अपनाया और अपने विशेष अन्दाज़ के वह भी उर्दू के ख्याति प्राप्त मर्सिया लिखने वाले कवि समझे जाते हैं। मगर जहाँ तक काव्य के सौंदर्य और भाषा तथा वर्णात्मक प्रवाह एवं यथार्थ चित्रण का संबंध है, मीर अनीस का काव्य उच्च कोटि का है।
मीर अनीस ने सैकड़ो मर्सिये, सलाम और रुबाइयाँ लिखी हैं। उनकी कविताओं का चयन आसान काम नहीं है। लेकिन इस संकलन को पढ़कर भी आप उनकी कलात्मक प्रतिभा से परिचित हो सकते हैं। ‘अनीस’ ने मर्सिया-गोई (मर्सिया-रचना) की कला को उच्च स्थान प्रदान किया और इसके साथ ही वह खुद उर्दू के सर्वश्रेष्ठ कवियों की पहली श्रेणी में गिने जाने लगे; और उनका काव्य उर्दू साहित्य की प्रतिष्ठा बन गया। न तो ‘अनीस’ से पहले कोई कवि इस स्थान पर पहुँच पाया था और न ‘अनीस’ के बाद। सौ वर्ष की इस लंबी अवधी में, कोई कवि ‘अनीस’ के दर्जे का मर्सिया तो क्या, चन्द बन्द भी न लिख सका।
मीर अनीस की भाषा दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला मीठा सरल, सुन्दर रूप है। उनका घराना दिल्ली का रहने वाला था जो बाद में फ़ैज़ाबाद जा बसा था। ‘अनीस’ का जन्म भी वहीं का है। फिर अनीस अपने पिता के साथ अल्पायु में ही लखनऊ आ गये और लगभग सारी उम्र लखनऊ में ही व्यतीत हुई। इसलिए उनकी भाषा में दिल्ली की सरलता, मिठास, घुलावट और सुन्दरता भी है और लखनऊ की भाषा के गुण यानी वर्णात्मक सौंदर्य, शब्द से शब्द निकालने और बात से बात पैदा करने और काव्य का कलात्मक प्रदर्शन भी विद्यमान है उनके यहाँ शब्दालंकार तथा अर्थालंकार भी मिलते हैं, लेकिन भोंड़े और भद्देपन से नहीं। वह जो शब्द जहाँ बिठा देते हैं, मालूम होता है कि अँगूठी पर नगीना जड़ दिया गया है। उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक अलताफ हुसैन ‘हाली’ ने ‘अनीस’ के लिए कहा थाः
मीर ‘अनीस’ ऐसे सुविख्यात घराने की संतान थे, जो ज्ञान और साहित्य में सदा से रुचि रखते थे। उनके दादा मीर हसन बहुत प्रसिद्ध कवि थे। उनकी सुप्रसिद्ध मसनवी (काव्य कथा) ‘सहरुलबयान’ उर्दू की सबसे अच्छी मनसवी मानी समझी जाती है। उनके पिता मीर ख़लीक़ भी अच्छे कवि थे। मर्सिया-गोई (कविता रूप में हज़रत इमाम हुसैन की शहादत की घटनाओं का शोक पूर्ण वर्णन) में उन्होंने बड़ा नाम पैदा किया। पहले हम संक्षिप्त रूप में ‘मर्सिये’ के संबंध में बता दें। यूँ तो किसी मरने वाले की याद में जो भी कविता लिखी जाय उसको ‘मर्सिया’ कहते हैं; लेकिन उर्दू में जब केवल ‘मर्सिये’ का शब्द बोला जाय तो अभिप्राय उन कविताओं से होगा जो हज़रत रसूल और उनके घराने, विशेषकर उनके नवासे इमाम हुसैन की शहादत पर लिखी गयी हैं। शहादत के वर्णन में रुबाइयाँ (चार पंक्तियों का पद) भी लिखी जाती है मगर ‘मर्सिये’ से तात्पर्य केवल वो कविता है जिसमें छः पंक्तियों का एक पद होता है और जो ‘मुसद्दस’ कहलाती है। इस पूरी कविता में कोई विशेष घटना का क्रम के साथ वर्णन होता है।
यूँ तो इमाम हुसैन की शहादत पर ‘मर्सिये’ उर्दू भाषा के बिलकुल प्रारंभिक काल से ही लिखे जाते रहें हैं। दक्कनि (दक्षिणी) उर्दू में शुरू से ही ‘मर्सिया’ मिलता है। मगर उस समय इसकी कोई ख़ास शक्ल तय नहीं हुई थी। ये मर्सिये चौ-मिस्त्र (चार पंक्तियों वाले) भी होते थे और पाँच मिस्त्र (पंक्तियो) वाले भी। जब छह मिस्त्र (पंक्तियों) वाली कविता में मर्सिये लिखे गये तो बहुत ज़्यादा पसंद किये गये और फिर मर्सिये के लिए यही शक्ल रिवाज पा गयी।
लेकिन उस समय मर्सिया लिखने वाले कवि प्रथम श्रेणी के कवि नहीं समझे जाते थे। कुछ लोग तो ‘बिगड़ा शहर मर्सिया-गो’ (अर्थात कवि बिगड़ता है तो मर्सिया लिखता है) फबती कसते थे। इसकी बड़ी वजह यह मालूम होती है कि बड़े-बड़े कवियों ने मर्सिये की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया, केवल धार्मिक कर्तव्य समझकर ‘मर्सिया’ भी लिख लिया जाता था। सबसे पहले लखनऊ के दो प्रमुख कवियों, मीर ‘ज़मीर’ एवं मीर ‘ख़लीक़’ ने मर्सिये को भरपूर कलात्मक क्षमता के साथ पेश किया और काव्य में मर्सिये का विशेष स्थान बनाया। ‘अनीस’ इन्हीं मीर ख़लीक़ के सुपुत्र थे। उन्हें अपने पिता से ही ये विर्सा मिला था। मीर अनीस ने युवावस्था में कुछ ग़ज़लें भी लिखी थीं मगर मीर ख़लीक़ ने उन्हें मर्सिया लिखने का परामर्श दिया और फिर उन्होंने मर्सिये को ही अपना काव्य क्षेत्र बनाया। दूसरी ओर, मीर ज़मीर के शिष्य मिर्ज़ा ‘दबीर’ ने भी मर्सिये को अपनाया और अपने विशेष अन्दाज़ के वह भी उर्दू के ख्याति प्राप्त मर्सिया लिखने वाले कवि समझे जाते हैं। मगर जहाँ तक काव्य के सौंदर्य और भाषा तथा वर्णात्मक प्रवाह एवं यथार्थ चित्रण का संबंध है, मीर अनीस का काव्य उच्च कोटि का है।
मीर अनीस ने सैकड़ो मर्सिये, सलाम और रुबाइयाँ लिखी हैं। उनकी कविताओं का चयन आसान काम नहीं है। लेकिन इस संकलन को पढ़कर भी आप उनकी कलात्मक प्रतिभा से परिचित हो सकते हैं। ‘अनीस’ ने मर्सिया-गोई (मर्सिया-रचना) की कला को उच्च स्थान प्रदान किया और इसके साथ ही वह खुद उर्दू के सर्वश्रेष्ठ कवियों की पहली श्रेणी में गिने जाने लगे; और उनका काव्य उर्दू साहित्य की प्रतिष्ठा बन गया। न तो ‘अनीस’ से पहले कोई कवि इस स्थान पर पहुँच पाया था और न ‘अनीस’ के बाद। सौ वर्ष की इस लंबी अवधी में, कोई कवि ‘अनीस’ के दर्जे का मर्सिया तो क्या, चन्द बन्द भी न लिख सका।
मीर अनीस की भाषा दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला मीठा सरल, सुन्दर रूप है। उनका घराना दिल्ली का रहने वाला था जो बाद में फ़ैज़ाबाद जा बसा था। ‘अनीस’ का जन्म भी वहीं का है। फिर अनीस अपने पिता के साथ अल्पायु में ही लखनऊ आ गये और लगभग सारी उम्र लखनऊ में ही व्यतीत हुई। इसलिए उनकी भाषा में दिल्ली की सरलता, मिठास, घुलावट और सुन्दरता भी है और लखनऊ की भाषा के गुण यानी वर्णात्मक सौंदर्य, शब्द से शब्द निकालने और बात से बात पैदा करने और काव्य का कलात्मक प्रदर्शन भी विद्यमान है उनके यहाँ शब्दालंकार तथा अर्थालंकार भी मिलते हैं, लेकिन भोंड़े और भद्देपन से नहीं। वह जो शब्द जहाँ बिठा देते हैं, मालूम होता है कि अँगूठी पर नगीना जड़ दिया गया है। उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक अलताफ हुसैन ‘हाली’ ने ‘अनीस’ के लिए कहा थाः
दिल्ली की जुबान का सहारा था ‘अनीस’
और लखनऊ की आँख का तारा था ‘अनीस’
दिल्ली शजर थी तो लखनऊ इसकी बहार
दोनों को है दावा कि हमारा था ‘अनीस’
और लखनऊ की आँख का तारा था ‘अनीस’
दिल्ली शजर थी तो लखनऊ इसकी बहार
दोनों को है दावा कि हमारा था ‘अनीस’
खुद ‘अनीस’ को भी अपने काव्य के दर्जे और
मर्तवे का
अन्दाज़ा था, और क्यों न होता ? जब वह मजलिसों (सभाओं) में, जहाँ सैकड़ों
लोगों का समूह होता था, मर्सियाँ पढ़ते, तो घण्टो लोग उसको सुनते और अपना
सिर धुनते, प्रशंसा की कोई हद न थी। एक स्थान पर उन्होंने कहा हैः
नज़्म है या गौहरे-शहवार की लड़ियाँ ‘अनीस’
जौहरी भी इस तरह मोती पिरो सकता नहीं
जौहरी भी इस तरह मोती पिरो सकता नहीं
एक और जगह कहते हैं-
किसी ने तेरी तरह से ऐ ‘अनीस’
उरूसे सुख़ुन को सँवारा नहीं
उरूसे सुख़ुन को सँवारा नहीं
अनीस’ के काव्य तथा भाषा के गुण बताने के लिए तो
पूरी एक
पुस्तक भी काफ़ी नहीं है। हाँ, यहाँ हम दो तीन बातों की ओर संकेत करना
आवश्यक समझते हैं। पहली चीज़ तो है भाषा पर उनका काबू और क्षमता। लाखों
शब्द और मुहावरे और कहावतें उनके मस्तिष्क के कोष में जमा रहती थीं। जिस
अवसर पर जिस कहावत या शब्द की आवश्यता होती वो आप से आप कलम की नोक पर आ
जाता। उन्होंने सैकड़ों ऐसे शब्द और कहावतें भी मर्सिये में शामिल किये
हैं जो उनसे पहले केवल बोलचाल में प्रयोग होते थे। उन्होंने उस सुन्दरता
से उन्हें काव्य में ढाला कि वे स्तरीय भाषा का एक अंग बन गये। दूसरी बात
चरित्र-चित्रण में उनका कमाल है। जीवनी-चित्रण कहानी और उपन्यास में भी
बहुत मुश्किल काम है और कविता में तो बहुत ही कठिन है। उर्दू शायरी में
जीवन-चित्रण ‘अनीस’ के मर्सियों में अपनी पूरी बुलंदी
पर नज़र
आती है।
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1. दुल्हन
कर्बला की घटना में जो लोग हैं उनके हर चरित्र के व्यक्तित्व और स्वभाव को इस अन्दाज़ से उभारा और इस सुन्दरता से दिखाया कि वे चलते-फिरते ज़िन्दा इन्सान का रूप धराण कर लेते हैं। बहन, भाई, माँ, बेटा, पति, पत्नी, भाई-भावज, बेटी और बाप, चाचा और भतीजी, नाना और नवासा (दोहता), जिसका भी वर्णन होता है, वही हँसता बोलता नज़र आता है। एक और बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ‘अनीस’ के नायक चरित्र यद्यपि अरब के हैं, मगर उनका जीवन रहन सहन, बोल-चाल और बहुत से स्थान पर रिवाज़ पहनावा इत्यादि हिन्दुस्तानी रंग में ढले हुए हैं। उन ख़ुशी और गम के उत्सवों में भी हिन्दुस्तानी सभ्यता का रंग साफ नज़र आता है, जहाँ विशेषतः स्त्रियों का वर्णन है, वहाँ माँ, बहन, बेटी, पत्नी सब में हिन्दुस्तानी औरतों का रूप दिखाई देता है।
हिन्दी के इस संग्रह के लिए हमने मीर ‘अनीस’ बारह मर्सियों का चयन किया है। इनमें से कई मर्सिये बहुत बड़े हैं। इसलिए हमने इनमें से कुछ पद चुन लिए हैं, लेकिन इसका ध्यान रखा गया है कि घटना का क्रम न टूटे, और पूरे वृत्तांत का एक समूचा चित्र सामने आ जाय। इसकी भी व्यवस्था की गयी है कि इमाम हुसैन के जन्म से लेकर उनके देहान्त और फिर उसके आगे की घटनाओं के मर्सिये क्रम के साथ प्रस्तुत हों। पहला मर्सिया हैः
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1. दुल्हन
कर्बला की घटना में जो लोग हैं उनके हर चरित्र के व्यक्तित्व और स्वभाव को इस अन्दाज़ से उभारा और इस सुन्दरता से दिखाया कि वे चलते-फिरते ज़िन्दा इन्सान का रूप धराण कर लेते हैं। बहन, भाई, माँ, बेटा, पति, पत्नी, भाई-भावज, बेटी और बाप, चाचा और भतीजी, नाना और नवासा (दोहता), जिसका भी वर्णन होता है, वही हँसता बोलता नज़र आता है। एक और बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ‘अनीस’ के नायक चरित्र यद्यपि अरब के हैं, मगर उनका जीवन रहन सहन, बोल-चाल और बहुत से स्थान पर रिवाज़ पहनावा इत्यादि हिन्दुस्तानी रंग में ढले हुए हैं। उन ख़ुशी और गम के उत्सवों में भी हिन्दुस्तानी सभ्यता का रंग साफ नज़र आता है, जहाँ विशेषतः स्त्रियों का वर्णन है, वहाँ माँ, बहन, बेटी, पत्नी सब में हिन्दुस्तानी औरतों का रूप दिखाई देता है।
हिन्दी के इस संग्रह के लिए हमने मीर ‘अनीस’ बारह मर्सियों का चयन किया है। इनमें से कई मर्सिये बहुत बड़े हैं। इसलिए हमने इनमें से कुछ पद चुन लिए हैं, लेकिन इसका ध्यान रखा गया है कि घटना का क्रम न टूटे, और पूरे वृत्तांत का एक समूचा चित्र सामने आ जाय। इसकी भी व्यवस्था की गयी है कि इमाम हुसैन के जन्म से लेकर उनके देहान्त और फिर उसके आगे की घटनाओं के मर्सिये क्रम के साथ प्रस्तुत हों। पहला मर्सिया हैः
या रब चमने-नज़्म को गुलज़ारे-इरम कर
इसमें मीर ‘अनीस’ ने इस रिवायत (सुनी हुई बात) का
उल्लेख किया
है कि हज़रत मुहम्मद को अपने नवासे (दौहित्र) हुसैन के जन्म के समय ही
ख़ुदा की ओर से यह ख़बर मिल गयी थी कि उनके देहान्त के पश्चात एक ऐसा
वक़्त आयेगा जब नाम के मुसलमान इस्लाम के दुश्मन हो जाएँगे और हुसैन के भी
दुश्मन हो जाएँगे और उन्हें क़त्ल कर देंगे। हज़रत मुहम्मद और हुसैन के
माता-पिता जोहरा और अली ने इस्लाम की मुहब्बत में यह कुर्बानी देना
स्वीकार कर लिया और ख़ुदा की मर्ज़ी के सामने सिर झुका दिया।
दूसरे मर्सिये में इमाम हुसैन के मदीने से रवाना होने का जिक्र है : बीमार बेटी की पिता और कुटुम्ब भर से छूटने के समय की हालत—माँ, बहनों से रूठना, बाप-भाई और माँ से शिकायत करना, तथा उसकी तड़प और व्याकुलता, फिर देशवासियों की विदायी के समय की बेचैनी का ऐसा चित्र खींचा कि सारा दृश्य आँखों में फिर जाता है।
तीसरे मर्सिये में जैनब के बेटों अर्थात हुसैन के भाँजों की शहादत का बयान है। लड़कों को युद्ध की आज्ञा देकर विदा करना, माता का स्वयं बच्चों भाई पर न्यौछावर होने के लिए भेजना, उनका बहादुरी के साथ दुश्मन की सेना से युद्ध करना और मारा जाना, लाशों का खेमें में आना, माता की व्याकुलता, मगर साथ ही सब्र-सन्तोष की हालत को बड़े दर्द और प्रभाव पूर्ण अन्दाज़ में बयान किया है।
चौथा मर्सिया इमाम हुसैन के भतीजे क़ासिम के हाल का है। कहा जाता है कि शहादत के एक दिन पहले इमाम हुसैन ने अपनी बेटी फा़त्मा कुबरा का निकाह क़ासिम से कर दिया था। ‘अनीस’ ने इस रिवायत को लेकर इस करुँण कथा का बड़ी ख़ूबी से वर्णन किया है।
पाँचवे मर्सिये में इमाम हुसैन के छोटे भाई अब्बास की शहादत का बयान है। अब्बास बड़े बहादुर ज़वान थे और हुसैनी सेना के सेनापति और ध्वजावाहक़ भी थे। वह हुसैन की छोटी बच्ची सकीना को बहुत चाहते थे और उसके प्रेम में प्यासी बच्ची के लिए पानी लेने नहर पर गये थे। उनके हाल के अनीस ने बहुत से मर्सिये लिखें हैं एक से अच्छा एक है। इस मर्सिए में अब्बास का हुसैन के लिए जाने और पानी लाने के लिए आज्ञा लेना, बहन, पत्नी, और भतीजी से विदा होना, लड़ाई के मैदान में वीरता से लड़ना, नदी से प्यासे बच्चों के लिए पानी भर कर लाना, मगर रास्ते ही में दुश्मन की सेना के हाथों मारा जाना दिखाया गया है। ‘अनीस’ ने मर्सिए में जिस निपुणता के साथ भाइयों के असीम प्रेम और उनकी जुदाई पर बहन-भाई की हालत दिखाई है, उसको पढ़कर हर दिल तड़प उठता है।
इमाम हुसैन के बेटे अली अकबर के हाल के भी ‘अनीस’ ने बहुत से मर्सिए लिखे हैं और सभी ऊँचे दर्जे के हैं। ये मर्सिया जिसकी पहली पंक्ति है : जब गाज़ियाने-फौजे-ख़ुदा नाम कर गये’ उनके मर्सिया में बहुत उम्दा गिना जाता है। बाप-बेटे की मुहब्बत, पिता पर जीवन बलिदान करने की भावना, माँ और फ़ूफ़ी का अकबर से असीम प्रेम मगर सत्य (हक़) के लिए और इस्लाम के ख़ातिर इस लाड़ले को युद्ध के लिए जाने की आज्ञा देना फिर अली अकबर की वीरतापूर्वक लड़ाई और वीर गति को प्राप्त होना, बेटे की मृत्यु का पिता, माँ और फ़ूफ़ी पर असर, हरेक चित्रण ‘अनीस’ ने इस तरह किया कि पूरा नक्शा सामने आ जाता है और सुनने पढ़ने वाले एक तरफ़ फड़क-फड़क उठते हैं और दूसरी तरफ़ तड़प-तड़प जाते हैं। इससे अगला मर्सिया है :
दूसरे मर्सिये में इमाम हुसैन के मदीने से रवाना होने का जिक्र है : बीमार बेटी की पिता और कुटुम्ब भर से छूटने के समय की हालत—माँ, बहनों से रूठना, बाप-भाई और माँ से शिकायत करना, तथा उसकी तड़प और व्याकुलता, फिर देशवासियों की विदायी के समय की बेचैनी का ऐसा चित्र खींचा कि सारा दृश्य आँखों में फिर जाता है।
तीसरे मर्सिये में जैनब के बेटों अर्थात हुसैन के भाँजों की शहादत का बयान है। लड़कों को युद्ध की आज्ञा देकर विदा करना, माता का स्वयं बच्चों भाई पर न्यौछावर होने के लिए भेजना, उनका बहादुरी के साथ दुश्मन की सेना से युद्ध करना और मारा जाना, लाशों का खेमें में आना, माता की व्याकुलता, मगर साथ ही सब्र-सन्तोष की हालत को बड़े दर्द और प्रभाव पूर्ण अन्दाज़ में बयान किया है।
चौथा मर्सिया इमाम हुसैन के भतीजे क़ासिम के हाल का है। कहा जाता है कि शहादत के एक दिन पहले इमाम हुसैन ने अपनी बेटी फा़त्मा कुबरा का निकाह क़ासिम से कर दिया था। ‘अनीस’ ने इस रिवायत को लेकर इस करुँण कथा का बड़ी ख़ूबी से वर्णन किया है।
पाँचवे मर्सिये में इमाम हुसैन के छोटे भाई अब्बास की शहादत का बयान है। अब्बास बड़े बहादुर ज़वान थे और हुसैनी सेना के सेनापति और ध्वजावाहक़ भी थे। वह हुसैन की छोटी बच्ची सकीना को बहुत चाहते थे और उसके प्रेम में प्यासी बच्ची के लिए पानी लेने नहर पर गये थे। उनके हाल के अनीस ने बहुत से मर्सिये लिखें हैं एक से अच्छा एक है। इस मर्सिए में अब्बास का हुसैन के लिए जाने और पानी लाने के लिए आज्ञा लेना, बहन, पत्नी, और भतीजी से विदा होना, लड़ाई के मैदान में वीरता से लड़ना, नदी से प्यासे बच्चों के लिए पानी भर कर लाना, मगर रास्ते ही में दुश्मन की सेना के हाथों मारा जाना दिखाया गया है। ‘अनीस’ ने मर्सिए में जिस निपुणता के साथ भाइयों के असीम प्रेम और उनकी जुदाई पर बहन-भाई की हालत दिखाई है, उसको पढ़कर हर दिल तड़प उठता है।
इमाम हुसैन के बेटे अली अकबर के हाल के भी ‘अनीस’ ने बहुत से मर्सिए लिखे हैं और सभी ऊँचे दर्जे के हैं। ये मर्सिया जिसकी पहली पंक्ति है : जब गाज़ियाने-फौजे-ख़ुदा नाम कर गये’ उनके मर्सिया में बहुत उम्दा गिना जाता है। बाप-बेटे की मुहब्बत, पिता पर जीवन बलिदान करने की भावना, माँ और फ़ूफ़ी का अकबर से असीम प्रेम मगर सत्य (हक़) के लिए और इस्लाम के ख़ातिर इस लाड़ले को युद्ध के लिए जाने की आज्ञा देना फिर अली अकबर की वीरतापूर्वक लड़ाई और वीर गति को प्राप्त होना, बेटे की मृत्यु का पिता, माँ और फ़ूफ़ी पर असर, हरेक चित्रण ‘अनीस’ ने इस तरह किया कि पूरा नक्शा सामने आ जाता है और सुनने पढ़ने वाले एक तरफ़ फड़क-फड़क उठते हैं और दूसरी तरफ़ तड़प-तड़प जाते हैं। इससे अगला मर्सिया है :
जब दौलते-सरवर पे जवाल आ गया रन में
इसमें हुसैन के दूध पीते बच्चे अली असगर की शहादत का ज़िक़्र है। यह घटना
इतनी दर्दनाक है कि सुनकर पत्थर दिल भी पानी हो जाता है। छह महीने के भूखे
प्यासे बच्चे को इमाम हुसैन दुश्मन की सेना के सामने ले जाते हैं कि दो
घूँट पानी शायद मिल जाये। मगर उसके बदले बच्चे का गला तीर से छेद दिया
जाता है और नन्हा मासूम बाप के हाथों पर तड़प कर जान दे देता है। इन
दर्दनाक घटनाओं
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